श्री जिनेश्वरसूरि जी का जन्म नाम श्रीधर पुत्र श्री कृष्ण, गृहस्थ जीवन में मध्यदेश के निवासी थे। उनके भाई का नाम श्रीपति था। दोनों भाई कुशाग्र बुद्धि सम्पन्न एवं प्रतिभावान थे। उन्होंने उच्चस्तरीय अध्ययन किया। देश-भ्रमण की भावना से वे घूमते-घूमते धारा नगरी पहुँचे जो उस समय का महासांस्कृतिक केन्द्र था। उसी नगर में जैन धर्मानुयायी एक श्रेष्ठि लक्ष्मीपति के यहाँ पहुँचे। लक्ष्मीपति अत्यन्त प्रभावित हुआ और उन्हें नित्य भोजन कराने लगा। उन दोनों भाईयों ने कई लेखों को उनकी दिवाल पर लिखा हुआ देखा। उनकी स्मरणशक्ति इतनी प्रखर थी कि पढ़ते ही सारा लेख उनके मस्तिष्क पर अंकित हो गया।
संयोगवश लक्ष्मीपति के भवन में आग लग गयी, जिससे भवन को अत्यधिक क्षति पहुँची। सर्वाधिक क्षति तो यह हुई कि अग्निकाण्ड में वह दीवार नष्ट हो गई जिस पर लेख अंकित था, जो उनके व्यापार के लेन-देन का था। जब दोनों भाईयों ने उन लेखों को अक्षरशः सुना दिया तो लक्ष्मीपति उनकी विद्या से बहुत प्रभावित हुये और उनका आदर-सत्कार भी अधिक होने लगा ।
लक्षमीपति ने इन दोनों भाईयों को आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि का दर्शन कराया। आचार्य इन दोनों भाईयों से प्रभावित हुए और दोनों भाई भी आचार्य से अत्यन्त ही प्रभावित हुए। दोनों भाई प्रतिदिन आचार्य के पास जाया करते थे और उनके साथ तात्त्विक चर्चा किया करते थे। दोनों भाईयों ने अपने को श्रमण- पथ पर नियोजित कर दिया। अल्प समय में ही महापंडित हो गए। उन्हें आचार्य पद पर आभिषिक्त किया गया। वे क्रमशः जिनेश्वरसूरि एवं बुद्धिसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए।
प्रभावक चरित्र के अनुसार वर्द्धमानसूरि ने जिनेश्वर तथा बुद्धिसागर को चैत्यवासियों के मिथ्याचार का प्रतिकार करने के लिए प्रेरित किया और आदेश दिया कि वे लोग अणहिलपुरपत्तन जाएँ और वहाँ सुविहित साधुओं के लिए जो विघ्न-बाधाएँ हों, उन्हें अपनी शक्ति एवं बुद्धि से दूर करें। भामह नामक बड़े व्यापारी के साथ दिल्ली से गुर्जर देश की ओर विहार कर दिया और धीरे-धीरे विक्रम संवत् 1080 में अणहिलपुर पत्तन में पहुँच गए।
स्थानीय चैत्यवासी यतियों ने भी जब यह बात सुनी तो उन्हें उनका आगमन अच्छा नहीं लगा और यह सोचकर उनका प्रतिकार करने लगे कि रोग उत्पन्न होते हो उसे नष्ट कर दिया जाय। चैत्यवासियों ने अधिकारियों के उन बच्चों को जो उनके पास अध्ययन करते थे मिठाई देकर प्रसन्न किया और उनके द्वारा नगर में यह बात फैलाई कि ये परदेशी मुनि के रूप में कोई गुप्तचर आये हैं, जो दुर्लभराजा के रहस्यों को जानना चाहते हैं। फलस्वरूप यह बात जनसाधारण में प्रसारित हो गयी और क्रमशः राज्यसभा तक जा पहुँची। राजा ने पूछा, किसने उन्हें आश्रय दिया है? उत्तर मिला राजन! आपके राजपुरोहित ने ही उन्हें अपने घर ठहराया है। पुरोहित को राज्य सभा में बुलाया व राजा ने पुरोहित से पूछा यदि यह धूर्त पुरुष हैं तो आपने इन्हें अपने यहाँ आश्रय क्यों दिया?
पुरोहित ने कहा, यह गलत बात किसने फैलायी है? मैं लाख पारुथ्य (एक प्रकार की मुद्रा) की शर्त लगाने के लिये ये कौड़ियाँ फेंकता हूँ। इन्हें दोषयुक्त सिद्ध करने वाला इन कौड़ियों को स्पर्श करें। परन्तु किसी ने कौड़ियों का स्पर्श नहीं किया। तदर्थ पुरोहित ने राजा से कहा, वे मेरे घर में ठहरे हुये हैं यतिजन साक्षात् धर्म-पूंज दिखाई देते हैं। उनमें किसी भी प्रकार का दोष नहीं है। यह सुनकर सूराचार्य आदि स्थानीय चैत्यवासी यतियों ने विचार किया कि इन विदेशी मुनियों को शास्त्रार्थ में जीतकर निकाल देना चाहिये। तब राजा ने पुरोहित से कहा- “जाओ, तुम अपने मान्य मुनियों को बुला लाओ।“ श्री वर्द्धमानसूरिजी पण्डित जिनेश्वर आदि विचक्षण साधुओं को साथ लेकर शुभ शकुन से सभा भवन में उपस्थित हुये।
आचार्यश्री वर्द्धमानसूरि बोले- “हमारी तरफ से पण्डित जिनेश्वर उत्तर- प्रत्युत्तर करेंगे और ये जो कहेंगे, वह हमें मान्य होगा।“ इसे सुनकर सभी ने कहा कि ऐसा हो हो। शास्त्रार्थ शुरू हुआ, अपने समय के सर्वाधिक प्रभावशाली आचार्य सूर को शास्त्रार्थ में पराजित कर धर्म संघ में स्वयं की प्रतिष्ठा को अधिकाधिक विस्तारित किया। राजा दुर्लभराज ने उन्हें खरा तरा कह कह संबोधित किया जिससे खरतरगच्छ का उद्भव हुआ। आचार्य जिनेश्वरसूरि अपने समय के अद्वितीय प्रज्ञा निष्पन्न व्यक्तित्व थे। अणहिलपुर पत्तन से आचार्य जिनेश्वरसूरि ने किन-किन प्रदेशों में विहार किया उसका विस्तृत उल्लेख तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु अष्टक प्रकरण वृत्ति की रचना उन्होंने वि.सं. 1080 में जालोर नगर में की थी। जिससे सिद्ध किया जा सकता है कि सं. 1080 में वे जालोर गये थे। वि.सं. 1092 में उन्होंने अनेकार्य एवं संयुक्त वैदग्ध्यपूर्ण लीलावती कथा नामक रचना निबद्ध की थी, जिसमें रचना स्थल आशापल्ली निर्दिष्ट है। अतः जिनेश्वरसूरि ने 1092 में आशापल्ली के क्षेत्रों की यात्रा की थी। वि.सं. 1095 में वे पुनः जालोर गये थे, यह तथ्य उनकी चैत्यवन्दनक नामक कृति से प्रगट होता है। कथाकोष प्रकरण में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार विदित होता है कि वि.सं. संख्या 1108 में वे िनियाणा में गये थे। (वर्तमान में इसे डीडवाणा कहते हैं, जो जोधपुर, राजस्थान, जनपद के पर्वतसर तालुकान्तर्गत है।) उनके द्वारा लिखित कुछ और ग्रंथों का भी उल्लेख मिलता है। यद्यपि उन्होंने प्रदेशों में विचरण किया होगा किन्तु उक्त उल्लेखों के अतिरिक्त अन्य कोई प्रामाणिक संकेत प्राप्त न होने से उनके बारे में कोई वर्णन नहीं किया जा सकता ।
आचार्य जिनेश्वरसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शदी है। संवतोल्लेख के साथ उनकी प्रथम कृति अष्ट प्रकरण वृत्ति हैं, जिसका रचना काल 1108 है। विभिन्न संदर्भों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संवत् 1080 में वे किशोरावस्था को पार कर चुके थे। आचार्य वर्द्धमान की शिष्यता स्वीकार कर शास्त्रीय अध्ययन में विशेष प्रगति प्राप्त की। तत्पश्चात् लगभग वि.सं. 1080 में शास्त्रार्थ विजयी बने। इस समय उनकी आयु 20-25 वर्ष से अधिक की ही होगी। अतः यह कहा जा सकता हैं कि वि.सं. 1060 से पूर्व जिनेश्वर का जन्म हुआ और वि.सं. 1108 के बाद वि.सं. 1120 के मध्य स्वर्गारोहण हुआ।